पश्चिम में पूरब की पताका फहराने वाले परमहंस योगानंद | जयंती विशेष

श्री डेस्क : 1893 की वह पांच जनवरी ही थी जब उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में भगवती प्रसाद घोष और ज्ञान प्रभा घोष के घर में मुकुंद लाल (बाद में उनके गुरु ज्ञानावतार स्वामी युक्तेश्वर गिरि द्वारा दिया गया परमहंस स्वामी योगानंद नाम) ने जन्म लिया। योगावतार लाहिड़ी महाशय से क्रियायोग (एक यौगिक विधि जिसके द्वारा इंद्रियों की चंचलता शांत हो जाती है और मनुष्य के ब्रह्मचैतन्य के साथ अधिकाधिक एक रूप होने का मार्ग प्रशस्त हो जाता है) की दीक्षा लेने वाले परमहंस योगानंद के माता पिता के लाहिड़ी महाशय के संपर्क में आने की भी चमत्कारी कथा है। उसका विस्तार बाद में।

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योगानंद के जन्म में भी लाहिड़ी महाशय ने खासी रुचि दिखाई थी। जन्म के कुछ समय बाद ही लाहिड़ी महाशय ने शरीर का त्याग कर दिया था। रेलवे में अधिकारी के पद पर कार्यरत परमहंस योगानंद के माता-पिता अपने साथ लाहिड़ी महाशय की फोटो हमेशा साथ रहते थे। मुकुंदलाल लाहिड़ी महाशय की एक फोटो देखते देखते ही बड़े हुए। 8 वर्ष की उम्र में गंभीर रूप से बीमार होने पर मां ज्ञान प्रभा ने लाहिड़ी महाशय की फोटो ही देखते रहने को कहा। अपनी आत्मकथा में स्वामी योगानंद फोटो देखते रहने से ही अपने चमत्कारी रूप से स्वस्थ होने की बात का उल्लेख करते हैं।

परमहंस योगानंद का जन्म ही क्रियायोग का पूरी दुनिया में प्रचार प्रसार के लिए हुआ था। यह बात भी उनके गुरु युक्तेश्वर गिरि ने अपने इस प्रिय शिष्य को बताई थी। योगानंद की आत्मकथा को पढ़ते हुए आप जान सकेंगे कि परमहंस योगानंद भी अवतारी पुरुष ही थे। उनके अवतार का सिरा महावतार बाबा जिन्हें हेड़ाखान बाबा के रूप में भी जाना जाता है, से जुड़ा है।

गुरु की आज्ञा से ही परमहंस योगानंद ने अविवाहित रहकर ‘वृहत परिवार’ की अवधारणा के साथ 1917 में योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ इंडिया की स्थापना करते हुए कोलकाता में एक किराए के कोठी में गुरुकुल की शुरुआत की। बाद में रांची में योग विद्यालय शुरू किया। योग विद्यालय में महात्मा गांधी और गुरुदेव रविंद्र नाथ टैगोर पहुंचकर शिक्षा पद्धति से प्रभावित हुए थे।

मात्र 27 वर्ष की अवस्था में पाश्चात्य देशों में क्रियायोग के प्रचार-प्रसार के लिए अमेरिका के लिए प्रस्थान किया। 1920 में अमेरिका के कैलिफोर्निया में ‘सेल्फ रियलाइजेशन फैलोशिप’ स्थापित कर क्रियायोग का प्रचार प्रसार प्रारंभ किया। स्वामी विवेकानंद ने योगानंद के जन्म के वर्ष 1893 में ही अमेरिका के शिकागो में अंतर्राष्ट्रीय धर्म संसद में अपना ओजस्वी व्याख्यान दिया था। उस वक्त बालक रहे अमेरिकी नागरिक डिकिंसन ने व्याख्यान सुनने के बाद मन ही मन उन्हें अपना गुरु मानने की अभिलाषा जागृत की।

व्याख्यान खत्म होने के बाद उन्होंने अपनी यह मंशा बाल सुलभ अंदाज में विवेकानंद के सामने जाहिर की। वह अपने अनुभव में खुद लिखते हैं-‘स्वामी विवेकानंद ने उनसे प्रेम पूर्वक कहा-‘मैं तुम्हारा गुरु नहीं हूं तुम्हारे गुरु बाद में आएंगे। वह तुम्हें चांदी का एक गिलास देंगे।’ डिकिंसन बाद में स्वामी योगानंद के शिष्य बने और क्रियायोग की दीक्षा ली। स्वामी योगानंद ने भारत यात्रा से लौटने के बाद कोलकाता में एक चांदी का गिलास खरीदा। चांदी का गिलास प्रेम से उन्होंने अपने शिष्य डिकिंसन को उपहार स्वरूप दिया। डिकिंसन ने अपना यह संस्मरण उसी वक्त स्वामी योगानंद को सुनाते हुए कहा था कि 43 वर्षों से हम इसकी प्रतीक्षा में थे। उनका यह संस्मरण भी स्वामी योगानंद ने अपनी आत्मकथा में दर्ज किया है।

परमहंस योगानंद एक ऐसे संत हैं, जिन्होंने भारत की क्रियायोग का पाश्चात्य देशों में प्रभुत्व कायम किया। अमेरिका और यूरोपीय देशों के लाखों-करोड़ों लोगों ने क्रिया योग की शिक्षा ग्रहण कर भारत के अध्यात्म की शरण ली। आज भी उनके द्वारा स्थापित योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ इंडिया भारत के आश्रमों और अमेरिका और अन्य देशों में सेल्फ रियलाइजेशन फैलोशिप संस्थाएं संचालित है और क्रियायोग का बड़े पैमाने पर विधिवत प्रचार प्रसार कर रही है।

स्वामी योगानंद ने 7 मार्च 1952 को शरीर का त्याग किया। शरीर छोड़ने के बाद एक महीने तक उनका निर्जीव शरीर शारीरिक विज्ञान से जुड़े लोगों की देखरेख में अमेरिका में ही निर्जीव रखा रहा। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि उस निर्जीव शरीर में कोई भी दुर्गंध नहीं आई थी। निर्जीव शरीर की चमक वैसे ही बनी रही थी।

-गौरव अवस्थी
रायबरेली
9415034340

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