आलोचना / अभिमन्यु पाल आलोचक

आलोचना

प्रेमचंद की कलम सा दर्द नहीं है,
कबीर सा कोई सच का हमदर्द नहीं है,
आधुनिक कवियों में पहले जैसी बात कहाँ है,
रचनाओं में संपूर्ण सत्य का साक्षात् कहाँ है,
इस दुखद विषय की चर्चा अनायास नहीं है,
आलोचकों की आलोचना बकवास नहीं है ।

सहज सरल चितवन वाले
दुर्लभ कवियों को देखा,
भ्रमित संभ्रांत प्रफुल्लित मन में
संसार की उज्जवल रेखा,
थिरक रहे कुछ बिंदु खोजते
शब्दकोश के पृष्ठों पर,
अंतर्मन में शब्द छुपाये
हास्य व्यंग्य करें कष्टों पर,
मुक्तक शैली को शस्त्र बनाकर
बने प्रहरी साहित्य जगत के,
भाषा शैली संस्कृति रोती
नहीं देखते कभी पलट के,
क्या रचना का आधार यही है?
अनवरत काव्य का विस्तार यही है,
यदि नहीं… तो किस दिशा में जा रहे हैं,
देहांगों की चाटूक्ति में विवेक जला रहे हैं,
दुर्भाग्य… मेरा भी नाम इन्हीं रचनाकारों में है,
असमंजस… विचार धारों में या धारा विचारों में है,
हम साहित्य के प्रति कर्तव्यनिष्ठ बनें…प्रयास यही है,
अभिमन्यु पाल आलोचक की आलोचना बकवास नहीं है।

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