शहर भी कभी गांव था / परम हंस मौर्य
शहर भी कभी गांव था
शहर भी कभी गांव था।
आंखों में पवित्रता दिल में प्रेम भरा हाव भाव था।
शहर में रह कर गुमान मत कर शहर भी कभी गांव था।
हर जगह इंसानियत ही इंसानियत थी ।
पैसे से ज्यादा इंसानों की अहमियत थी।
काम आते थे एक दूसरे के हमेशा सीधा साधा निश्चल स्वाभाव था।
शहर में रह कर गुमान मत कर शहर भी कभी गांव था।
बूढ़े बुजर्गो की सेवा बड़ो का मान सम्मान रहता था।
रिस्तो की कदर होती थी हर कोई दिल का मेहमान रहता था।
मिल जुल कर रहते थे सभी आपस में एक दूसरे से कभी न मन मुटाव था।
शहर में रह कर गुमान मत कर शहर भी कभी गांव था।
तरह तरह के तीज त्योहारों में खुशहाली रहती थी।
सबके होठों पे मधुर गीत और कव्वाली रहती थी।
अपनी संस्कृति सभ्यता मातृभूमि से सबको लगाव था।
शहर में रह कर गुमान मत कर शहर भी कभी गांव था।
खेत खलियानों में फसलें लहराया करती थीं।
बागों में झूला डाले चिड़िया गाया करती थी।
नेक रास्ते पे चलते थे सब परम हंस सफलता की सीढ़ी पे पांव था।
शहर में रह कर गुमान मत कर शहर भी कभी गांव था।
गीतकार परम हंस मौर्य