सुनो! गौर से हिंदी वालों
हिंदी दिवस फिर आ रहा है। मनाने वाले अधिकांश लोगों को शायद ही पता हो कि हिंदी दिवस कब से मनाया जाता है और क्यों? नई पीढ़ी को हिंदी का इतिहास बताने के बजाय बताई जाती है उसकी चमक-दमक। जिस ‘प्रभुत्व’ से उसकी चमक फीकी पड़ी। धर्म ग्रंथ और साहित्य छिन्न-भिन्न हुआ, उसी ‘प्रभुत्ववादी’ मानसिकता से बताया जा रहा है कि हिंदी विश्व में तीसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा बन चुकी है। अपनी हिंदी विश्व पर जल्द राज करने लगेगी। हिंदी का शब्दकोश विश्वभाषा (अंग्रेजी) से बड़ा है, बहुत बड़ा है। बताए जाते हैं किस्म-किस्म के तमाम किस्से-कहानी ताकि हिंदी वाले असली प्रश्न से अनजान रहें। दूर रहें। हिंदी वालों को हिंदी के ‘रोग’ का पता न चलने पाए। रोग पता चल गया तो चीड़-फाड़ करनी जरूरी होगी। वह चाहे सरकार करे या समाज।
हिंदी का संघर्ष हिंदू धर्म की तरह सनातनी है। यह अलग बात है कि अपनी साधारण लिपि की ही बदौलत हिंदी मिट कर भी कभी मिटी नहीं, वैसे ही जैसे-डॉ शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ जी के शब्दों में ‘मिट्टी मिट-मिट कर भी नहीं मिटी’ (मिट्टी की महिमा)। हर कालखंड में हिंदी ने हमले झेले। लिपि के लोप की कोशिशें हुईं। उपेक्षा सही। दंश मिले पर अंश रूप में ही सही हिंदी बनी रही। बची रही। कभी रुकी। कभी चली। कभी दौड़ी। हजार साल पहले हिंदी देश की भाषा थी। नागरी लिपि का प्रसार था। भारत में मुगल 110-1200 ई. आए और हिंदी की जगह फारसी प्रचलन में आई। तब फारसी का विश्व के अधिकांश भाग में वही स्थान था जो आज अंग्रेजी का है। मुगलों के दौर में फारसी राज्य शासन की भाषा बनी। लगभग 400 वर्षों तक हिंदी उपेक्षित रही। 18वीं शताब्दी (1757 ई.) में मुगलों के चंगुल से मुक्त भारत पर अंग्रेज राज आया, पर फारसी अदालतों में हावी रही और शासकीय कार्यों में अंग्रेजी प्रचलन में आ गई।
भारत पर 80 साल के शासन के बाद 1830 में अंग्रेजों को अहसास हुआ कि फारसी आमफहम भाषा नहीं है। उसी साल अंग्रेज हुकूमत ने एक राजाज्ञा निकाली-अदालतों के काम देश (स्थानीय) भाषाओं में किए जाएं। बंगाली, गुजराती और उड़िया आदि क्षेत्रीय भाषाएं तो अदालतों की भाषा बन गई लेकिन उर्दू को ही ‘हिंदुस्तानी जुबान’ मान लिए जाने के भ्रम में हिंदी कोने में पड़ रही। सिर्फ इसलिए कि हिंदी का अपना तब तक कोई जोर नहीं रह गया था। साहित्य नहीं था। शिक्षा देने योग्य पुस्तकें नहीं थीं। तब हिंदी हित में आगे आए ‘सितारे हिंद’ राजा शिव प्रसाद। उन्होंने ही वह चुनौती स्वीकारी। हिंदी में पढ़ने योग्य 40 पुस्तकें लिखीं। दूसरों से पुस्तकें लिखाकर अदालतों की भाषा-स्कूलों में शिक्षा हिंदी में देने की लड़ाई को धार दी।
सितारे हिंद की प्रेरणा से राजा लक्ष्मण सिंह, पंडित दीनदयाल तिवारी, लाला सीताराम, पंडित श्रीधर पाठक, भारतेंदु हरिश्चंद्र, बाबू श्यामसुंदर दास, राजाराम पाल सिंह (कालाकांकर), पंडित बालकृष्ण भट्ट, पंडित प्रताप नारायण मिश्र, चौधरी बद्रीनारायण प्रेमधन, देवी प्रसाद दूबे से लेकर आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी तक अन्यान्य साहित्यकारों-पत्रकारों के हिंदी हित का संघर्ष सबको पता ही है। 63 वर्ष के अनवरत संघर्ष की मशाल जलते रहने की बदौलत ही ब्रिटिश हुकूमत में अप्रैल ‘1900 में हिंदी अदालतों के कामकाज की भाषा बनी। हिंदी के संघर्ष का यह प्रथम चरण यहीं पूरा हो गया।
हिंदी के संघर्ष के दूसरा चरण हिंदी को देश व्यापक भाषा (राष्ट्रभाषा) बनाने का था। इसकी कमान ‘द्विवेदी युग’ के साहित्यकारों ने संभाली। फिर हिंदी स्वाधीनता की लड़ाई में संपर्क भाषा बनी। हिंदी साहित्य सम्मेलन के 1918 के इंदौर अधिवेशन में पहली बार हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की वकालत गैर हिंदी भाषी महात्मा गांधी ने ही की लेकिन बात संपर्क भाषा से आगे बढ़ नहीं पाई। अदालतों से आगे जाने में हिंदी को 49 साल लग गए। 15 अगस्त 1947 को आजादी मिलने के बाद राष्ट्रभाषा का सपना पूरा होने की उम्मीद तो जागी लेकिन पूरी आज तक नहीं हुई। आजादी के 2 वर्ष बाद 14 सितंबर 1949 को हिंदी को सिर्फ राजभाषा का दर्जा मिला।
मूल प्रश्न यही है, राजभाषा हिंदी आखिर राष्ट्रभाषा बनेगी कब? 73 वर्ष तो बीत गए। अभी इंतजार शेष है, क्योंकि समर (संघर्ष या प्रयास) कहीं नजर नहीं आ रहा। अपनी मातृभाषा को ‘राष्ट्रभाषा’ का दर्जा दिलाने कोशिश शुरू करने से पहले हमें पहला सवाल तो खुद से ही पूछना चाहिए..हम खुद हिंदी के कितने हिमायती हैं? इसके बाद सोचिए कि आजाद भारत में हिंदी को देश (राष्ट्र) भाषा बनने में अभी कितना समय और समय चाहिए? क्या हम हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की कोई खुसुर-पुसुर (मांग तो दूर) कभी अपने आसपास सुनते हैं? क्या नेतृत्व (किसी भी दल या नेता, कोई भी सरकार) हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का कोई ठोस उद्योग करता दिखता है? हिंदी को अन्य भारतीय भाषाओं से जोड़ने की कोई कारगर योजना कभी देखी-सुनी? या हमारे-आपके सपने में ऐसा कोई विचार कभी आया?
ऐसे अधिकतर प्रश्नों के उत्तर जब अंतर्मन में ‘न’ में सुनाई दें, तब जिम्मेदारों से हमारा-आपका जवाब मांगना जरूरी हो जाता है। याद रखें, हिंदी जन भाषा थी, है और रहेगी। इसको मिटाने या बढ़ाने के निर्णय ‘शासक वर्ग’ से जरूर हुए पर हिंदी बची तो अपनी सरलता और हमारे-आपके पूर्वजों के सम्मिलित प्रयासों की बदौलत ही। इन सब सवालों के बीच एक इस सवाल पर गौर करना भी जरूरी है- जब हिंदी पट्टी से हिंदी का मूल प्रश्न ही गायब कर दिया जाए तो जनता आखिर क्या करे? इसका एक ही जवाब है- ‘जागरुकता’।
हिंदी के संघर्ष का इतिहास ही बताता है कि आम और खास लोगों की जागरुकता के बिना हिंदी बची और न बढ़ी। तो, हमें जागने में क्या हर्ज है? अब फर्ज निभाने में देर का सीधा अर्थ है कि हम हिंदी विरोधी हो न हो पर हितैषी तो कतई नहीं। हिंदी हित में जो दिख रहा वह केवल ढोंग है। ढोंग इस दौर की कड़वी सच्चाई है। इसमें सरकारी ढोंगों को भी जोड़ लें तो यह ‘ढोंग वर्ग’ बन जाता है। अब यह आप पर है, ढोंग बढ़ाना है या असल में हिंदी दिवस मनाना है।
∆ गौरव अवस्थी
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