आधुनिकता की चकाचौंध में दम तोड़ रही कुम्हारों की कलाकृति

रायबरेली : विज्ञान की प्रगति एवं आधुनिकता की चकाचौंध में आज कुम्हारों की कलाकृति दम तोड़ती जा रही है।जहां एक तरफ राज्य एवं सरकार केन्द्र सरकार द्वारा रोजगार को बढ़ावा देने का ढिढोंरा पीटा जा रहा है। वहीं दूसरी तरफ अपनी अनुपम कलाकृति से सारे विश्व को आकर्षित करने वाले कुम्हारों को शासन द्वारा कोई संरक्षण न मिलने के कारण इनकी कलाकृति दम तोड़ती नजर आ रही है। “कबीरदास जी की यह उक्ति माटी कहै कुम्हार से तू क्यों रौंदे मोय, एक दिन ऐसा आयेगा, मैं रौंदूंगी तोय। पूरी तरह से चरितार्थ साबित हो रही हैं।”

विज्ञान की प्रगति एवं भौतिकता की चकाचौंध ने कुम्हारों की कलाकृति और रोजी को रौंद कर रख दिया है।“देवताओं की अर्चना के लिए दिया तरासने वाले हाथ आज अपनी बेबसी पर आंसू बहा रहे हैं। मोहन जोदड़ो की सभ्यता से लेकर सृष्टि की संस्कृति का विस्तार होने तक मृतिका के पात्रों के पात्रों का अहम योगदान रहा है।आज भी कुम्हारों की बनाई गयी मिट्टी की मूर्तियों के आगे सहज ही हमारा शीश झुक जाता है। लेकिन विज्ञान की प्रगति एवं प्लास्टिक फाईवर तथा चायनीज झालरों आदि के बढ़ते प्रयोग के चलते कुम्हार अपने पैतृक व्यवसाय और कलाकृति को छोड़कर मजदूरी के लिए शहरों की ओर पलायन करने को विवश है।

कुम्हार की कलाकृति का मानव सभ्यता के विकास में अहम योगदान रहा है। जिसे कभी भुलाया नही जा सकता है। कुम्हार के बनाये कुल्हड़ों ने कभी लोगों के ओठों को चूमा तो कभी कोसवा ने बच्चों का दिल बहलाया तो कभी परई एवं दियाली ने घरों के अन्धकार को दूर कर चारो ओर रोशनी बिखेरी। कभी कलश ने मण्डप में देवताओं को आमंत्रित किया तो कभी कलश महिलाओं के सिर पर गाॅव में घूमा। एक समय ऐसा था सुराही, घड़े से महिलायें पीने के लिए पानी लाती थी। तो ग्वालिने मटकों में दही बेचने जाया करती थी।

कुम्हार ने अपने हाथों एवं पैरों के छालों की परवाह ना करते हुए पूरी तरह से अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह किया।आज समाज एवं शासन द्वारा या तो उनके प्रति अपनी जिम्मेदारी को भुलाया जा चुका है। या विज्ञान की प्रगति ने दूरियां बढ़ा दी हैं। दीपावली के पर्व पर जहां समूंचा भारत वर्ष इनके बनाये गये द्वीपों से जगमगाया करता था। वहीं आज उनकी जगह चायनीज झालरों ने ले ली है। यदि प्लास्टिक,फाईवर के बर्तनों एवं चायनीज झालरों को बन्द न किया गया तो एक दिन ऐसा आयेगा कि पूर्वजों के तर्पण एवं शुभ कार्यों के लिए भी मिट्टी के बर्तन नसीब नही होंगे।

कुम्हारों की जीविका पर मड़रा रहे संकट के बादल

43 ग्राम सभाओं वाले विकास क्षेत्र शिवगढ़ के बैंती, देहली,बहुदाकला, गूढ़ा,भवानीगढ़ खजुरों सहित ग्राम सभायें कभी कुम्हारों का गढ़ मानी जाती हैं। जहां रहने वाले कुम्हार एवं उनके पूर्वज प्राचीनकाल से मिट्टी के बर्तन, कलश,दीपक ,कलशा एवं मूर्तियां आदि बनाकर मानव सभ्यता और संस्कृति को संरक्षण प्रदान करते चले आ रहे हैं। किन्तु विडम्बना है कि आधुनिकता की चकाचौंध में कुम्हारों की स्थिति बद से बत्तर हो गयी है। भुखभरी की कगार पर पहुंच चुके कुम्हार एवं कसगर अपने परिवार की जीविका चलाने के लिए शहरों की ओर पलायन करने को मजबूर हैं। कुम्हारों के उत्थान के लिए शासन की ओर से ठोस कदम उठाये जाने चाहिए।

चायनीज झालरें दे रही भारतीय कलाकृति को झटका

एक समय था दीपावली का पर्व आते ही कुम्हारों द्वारा बनाये गये मिट्टी के मनमोहक दीपों से समूचा बाजार गुलजार हो जाया करता था। जिसकी जगह चायनीज झालरों ने ले ली है। जिधर देखो उधर चायनीज झालरों से बाजार पटे पड़े हैं। एक बृद्ध कुम्हार ने अपनी व्यथा व्यक्त करते हुए बताया कि चायनीज झालरों ने हम लोगों की रोजी रोटी चौपट कर दी है।

मिट्टी वाले दीप जलाना अबकी बार दीवाली में

मिशाल-

शिवगढ़ क्षेत्र के गूढ़ा कस्बे में रहने वाले छात्र मोहम्मद आफताब ने स्वयं चाक पर मिट्टी रखकर दीप बनाये और उन्हे अपने शिक्षकों एवं सहपाठियों को भेंट करते हुए निवेदन किया कि अबकी बार मिट्टी वाले दीप जलाना। मासूम बालक का निवेदन सुनकर शिक्षक कुछ देर के लिए स्तब्ध रह गये। मासूम बालक का यह निवेदन माता पिता एवं पूर्वजों की कलाकृति को बचाने के लिए नही था। बल्कि उस डर से था जिसको न्यूज चैनलों द्वारा चाईना से देश के लिए खतरा बताया जा रहा है। निश्चित रुप से बालक का यह निवेदन मातृ भूमि की सुरक्षा के लिए था। मासूम बालक का निवेदन सुनकर सभी शिक्षकों एवं छात्र-छात्राओं ने संकल्प लिया की अबकी बार वे अपने घरों में चाईना की झालरें न जलाकर मात्र मिट्टी के दिए जलायेंगे।

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