समय के सापेक्ष गुरुओं की महती भूमिका

सर्वविदित है कि किसी भी देश की उन्नति अथवा उसके सर्वांगीण विकास के मूल में शिक्षकों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। या यूँ कहें कि शिक्षक देश के विकास की रीढ़ हैं तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। उनकी महत्ता को देखकर उन्हें गुरुत्व प्रदान करते हुए गुरु की संज्ञा से अभिशक्त किया गया है। भारत जैसे देश में किसी न किसी रूप में वैदिक काल से लेकर अब तक गुरुओं की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। कबीरदास, रैदास, मालिक मोहम्मद जायसी, तुलसीदास, सूरदास, मीराबाई जैसे महान संतों ने सच्चे गुरु को ईश्वर से भी श्रेष्ठ माना है। शिक्षकों के जीवन में पांच सितंबर एक अहम दिन है। डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारत के पहले उप-राष्ट्रपति और दूसरे राष्ट्रपति के साथ-साथ महान व्यक्तित्व के धनी थे, जिनके जन्मदिन पर प्रतिवर्ष 5 सितंबर को सम्पूर्ण भारत वर्ष में शिक्षक दिवस हर्ष-उल्लास के साथ मनाया जाता है।

देशकाल परिस्थितियों के अनुसार जैसे-जैसे शिक्षा का स्वरूप बदला, वैसे-वैसे शिक्षकों की भूमिका बदलती और बढ़ती गई। वैज्ञानिक प्रगति और डिजिटल युग में बदलते समय के साथ शिक्षकों की भूमिका बदल गयी है। प्रकारांतर से शिक्षक युग के सापेक्ष स्वयं को तैयार करते रहे हैं। उदाहरण के तौर पर वैश्विक महामारी कोरोना काल में अन्य परिवर्तनों के साथ साथ पढ़ने और पढ़ाने के तौर-तरीकों में भी परिवर्तन आया है। ऐसे में शिक्षकों ने सीमित संसाधनों से ऑनलाइन प्रशिक्षण और शिक्षण कार्य करके इस धारणा को सिद्ध भी कर दिया है।

शिक्षक प्रत्येक दायित्व का बखूबी निर्वहन करता है। शिक्षकों का ये दुर्भाग्य भी है कि भारत में जो शिक्षा सामाजिक सरोकार, सामंजस्य, संस्कारजन्य थी, वह व्यवसाय आधारित हो गई है। यहाँ पर एक बात ध्यान देने योग्य यह भी है कि भारत में शिक्षा का प्रसार तो हुआ लेकिन उसकी गुणवत्ता में कमी आई है।

इसके लिए हमारे समाज का हर वर्ग, कुछ गलत रीतियाँ-नीतियाँ व अभिभावक कहीं न कहीं जिम्मेदार हो सकते हैं, लेकिन उससे कहीं अधिक जिम्मेदारी शिक्षकों पर आ जाती है। आज यह कहा जाने लगा है कि जिनकी रूचि शिक्षा में नहीं है, उनको शिक्षक नहीं बनना चाहिए। शैक्षणिक अभिरुचि को वेतन से नहीं तोलना चाहिए। एक ओर शिक्षा के क्षेत्र में ऐसे ऐसे लोग आ गए हैं जिनको इस क्षेत्र के वेतन ने लुभाया है तो वहीं दूसरी तरफ इंटरनेट के दौर में ऐसा लग रहा है कि शिक्षकों की भूमिका कम हो गई है, लेकिन यह धारणा पूर्णतया गलत है। गूगल, क्रोम जैसे सर्च इंजन का सहारा लेकर अपने गुरु जी को भूलना खतरनाक है। ऑनलाइन शिक्षण पद्धति में ज्ञान सीमित व संकुचित है, व्यावहारिक नहीं। शिक्षकों का ज्ञान व्यवहारिक, आध्यात्मिक और सामाजिक भी है।शिक्षक हमारे समाज की धुरी है और चतुर्दिक विद्याओं के प्रचार-प्रसार में उसकी प्रारंभिक आवश्यकता पड़ती है। शिक्षक शिक्षण प्रणाली की वो कड़ी है, जो आज विलुप्त होने की कगार पर है। खीजते संस्कारों के परिवेश में कहीं न कहीं स्वस्थ्य मस्तिष्क होने के बाद भी संस्कारहीन रिश्तों की दीवार खड़ी हो गयी है। वर्तमान भौतिक युग में यदि समाज न चेता तो, निश्चित तौर पर हमें शनैः शनैः अपने पतन के लिए तैयार रहना चाहिए।

आज का विद्यार्थी भी इसीलिए गुरुओं के प्रति श्रद्धा हीन हो गया है क्योंकि उसका “श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्” से विश्वास उठ गया है। इस नाते भी शिक्षक और विद्यार्थी में दूरियां बढ़ी हैं। इस दूरी को कम करना समय की मांग है। संचार क्रांति के बदलते दौर में शिक्षक को अपने ज्ञान को अद्यतन करना पड़ेगा। युग के अनुरूप दी गई शिक्षा समाजोयोगी होती है और किसी भी राष्ट्र को उन्नति के शिखर की ओर ले जाती है। विद्यार्थियों की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है कि वह गुरुओं के सम्मान और उनके प्रति आदर श्रद्धा का भाव रखें, तभी शिष्य और अखिल विश्व में लोक मंगलकारी भावना का संचार होगा।

डॉ० सोनिका, अम्बाला छावनी, हरियाणा।
अशोक कुमार गौतम, असि०प्रोफ़ेसर, रायबरेली (यू.पी.)
मो० 9415951459

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *