श्रवण कुमार पाण्डेय की कविता | Poetry of Shravan Kumar Pandey
श्रवण कुमार पाण्डेय की कविता | Poetry of Shravan Kumar Pandey
हे नाथ,
रघुवंश नाथ,
मुझसे आपका वियोग,
जीवन में दो बार हुआ,
प्रथम बार कारण मैं खुद थी,
सूर्पनखा आगमन तो दुर्घटन था,
नारी जाति का उछृंख्ल पर्यटन था,
न मैं जिद कर स्वर्ण मृग मांगती,
न आप दृष्टि से ओझल होते,
न भिक्षुक अतिसमीपस्थ होती,
न सीता इस भांति अनाथ होती,
असन्तुष्ट तिरिया की हठ अन्ततः,
सतत दुखदायी ही सिद्ध होती,
वनवासिनि को स्वर्ण मोह ने,
कदाचित अपने आगोश मे,
जकड़ नही लिया होता तो
रावण कर अपहरण न होता ,
त्रिया के स्वर्ण मोह से विन्ध
वनवास इतना दुष्कर न होता,
किन्तु हे नाथ तब किस भांति,
रामावतार हेतु सफल होता,
दुखों का स्रोत यद्यपि मै थी,
लेकिन इससे आपका सुयश,
दिगदिगंत व्यापक हुआ,
पुरुष पौरुष परीक्षित हुआ,
किन्तु हे नाथ,,,,
आपसे द्वितीयक वियोग,,,,?
जिससे छूटा आपसे साथ,
अबतक पचा नही पाई नाथ,,,,
चलते समय मैने आपकी ओर,
बड़ी उम्मीद से निहारा था,,
मेरे नयनों में शरण याचना थी,
मुझे लगा कि अब मैं हूँ अनाथ,
नतमन से कैसे निभा पाती साथ,
भीतर भीतर टूट चुकी थी रघुनाथ,
बस एक बार कह देते बस इतना,
तुम परम पुनीते हो जानकी सीते,
मगर आपने जाने क्या सोंचकर
मुझसे मुंह ही फेर लिया था नाथ,
किसके सहारे जीती तुम्हारी सीते
सम्भवतः जीवन में प्रथम बार,
आप इतने विवश हुये थे नाथ,
ज्यों ज्यों मैं समाने लगी धरा में,
सीते सीते टेर लगाई थी आपने,
तब बहुत देर हो चुकी थी नाथ,
जानकी तब धरा की हो चुकी थी,
जीवन की कामना सो चुकी थी,
तुम्हारे अंश को मन से पाला,
उन्हे ऋषि शरण मे रखकर,
उत्तम पुरुषोत्तम संस्कार दिये,
सुयोग आया तो फिर वही,
पुरुष हठ का द्म्भी तामझाम,
जन समुदाय की तुष्टता के लिये,
क्या अपवित्रता के दायरे मे
सिर्फ नारी ही आती है,रघुनंदन,
यही नियम पुरुष पर क्यो नहीं,,?
लेकिन आप महान राजा थे,
आपको आदेश का अभ्यास था,
आपके साथ सकल समाज था,
आपको स्वयं को सिद्ध करना था,
जग मे उदाहरण प्रस्तुत करना था,
आखिर और कब तक कितना सहती,
कबतक भीतर से कैसे मजबूत रहती,
महाप्रयाण नही करती तो क्या करती
अच्छा हुआ, मेरे लिए फट गई धरती,
लेकिन सच सच बताना,आर्यपुत्र ,
मेरे बिना तुम कैसे जिये,
फिर कभी आप या मेरे लव कुश
रोए तो नहीं मुझ अभागिन के लिये,
आपके पास,सब कुछ था,राघव,,
लेकिन,मेरे प्रश्नों का उत्तर नही था,
निरूत्तरित के संग क्या जीना,
मुझे भी नही दिखा जीवन सुभीता,
सच में मनसा वाचा कर्मणा,
सर्वथा निर्दोष होते हुए भी
संसय का गरल क्यों पीना,,
हर बात की होती है सीमा
लेकिन लोकापवाद की नही,
सदैव नारी ही दोषी नहीं होती,
इतना भी पुरुषदंभ सही नहीं,
,,,,,
राम ने दिया महत्व
लोकापवाद को,
निजी संबंधों को गौण कर,
यह बहुत ही बड़ी बात है,
भविष्य में भी तमाम राम,
सीताओं का बेड़ा गर्क करेंगे
आखिरकार कितने जीवन चरेंगे ,
यह निरर्थक मिथ्या लोकापवाद,
न राम ने रजक को बुलाकर
समाज मध्य खराफुरी की,
न जन समान्य लोग करेंगे,
निरंतर सुखद दुखद क्रम होंगे,
जाने कितने राम सीता अलग होंगे,
जबतब विरह दुख का वरण करेंगे,
लोगों के मुंह में कौन ढान्पेगा परई,
हर सीता को मिलेंगे बाल्मीकि नहीं,
सीता के साथ जो हुआ ,वह ठीक नहीं,
–श्रवण कुमार पाण्डेय
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