मेरे कान्हा (सार छंद) / सारिका अवस्थी

 मेरे कान्हा ।। (सार छंद)
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प्रीति हुई कान्हा से जब से,मुझे नहीं कुछ भाता,
जिधर भी देखूं श्याम – श्याम ही, सदा नजर है आता ।।
श्याम बन गए साथी मेरे,उनसे सब कह लेते,
मन की बातें मन से ही कर, मन को समझा देते ।।
नाते सारे हुए पुराने,नेह श्याम से जोड़ा,
हाथ श्याम ने थामा मेरा,जब सब ने था छोड़ा ।।
श्याम सलोने की छवि मुझमें, रची बसी है ऐसे,
नैनों का काजल हो या फिर,उर की धड़कन जैसे ।।
बीच भंवर में थी मेरी नैया,कोई नहीं खिवैया ।
टूटी थी जब आशा मन की,उसने पकड़ी बैयां ।।
अपने हुए जब गैर मेरे,व्याकुल मन घबराया।
तब – तब आए श्याम मेरे, जब – जब मैंने बुलाया ।।
कृष्ण कृष्ण की रटन लगी है,कृष्ण कृष्ण ही रटते ।
सांसों में रमते है मेरे,प्राण कृष्ण में बसते ।।
दुख के घन छंट जाते हैैं, घनश्याम नाम जो भजते ।
धड़कन जिव्हा आंसू मेरे,नाम से उनके सजते ।।
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सारिका अवस्थी
एम ए उत्तरार्ध
शिवगढ़ रायबरेली

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