सर्वसमाज के लिए चिंतन | खीझते संस्कार और दम तोड़ती मांगलिक रस्में

रायबरेली डेस्क : शीतकालीन शादियों अर्थात लग्न का दौर समाप्त होते ही चँहुओर बैंड बाजे की धुन, रंगबिरंगी सजावट, नानादि व्यंजनों से सजा पांडाल… जिसके लिए वर के माता/पिता और वधू के माता/पिता अपना पेट काटकर एक-एक पाई जोड़कर अच्छी सी अच्छी व्यवस्था करने का हर सम्भव प्रयास करते हैं।

अनेक शादियों में स्वयं मैंने देखा, और सोशल मीडिया पर भी देखा पढा.. जिससे कहीं न कहीँ मन को ठेस पहुंचती है-
जयमाला कार्यक्रम आज की परंपरा नहीं है। त्रेतायुग में श्रीराम और सीता का शुभ विवाह भी जयमाला रस्म के साथ सम्पन्न हुआ था। यह वैवाहिक संबंध की महत्वपूर्ण रस्म है, जिसके द्वारा नवयुगल के सुखमयी दाम्पत्य जीवन की शुरुआत होती है।
बदलता परिवेश कहें या पाश्चात्य सभ्यता का कुप्रभाव..। वर्तमान समय में कहीं दुल्हन नृत्य करते हुए स्टेज पर आती है, कहीं बुलट बाइक से स्टेज पर आती है, कहीं रिवॉल्वर/रायफल से फायर करती हुई स्टेज पर आती है, कहीं उसकी सखियाँ गोदी में उठा लेती हैं जिससे दूल्हा माला आसानी से न पहना सके..

दूल्हे राजा भी पीछे क्यों रहें- कहीं दूल्हा शराब पीकर आता है तो कहीं लड़खड़ाते हुए आता है, कहीं डान्स करते हुए आता है, कहीं दुल्हन की सहेलियों से शरारतें अटखेलियां करता है, कहीं दूल्हे को उसके मित्र इतना ऊपर उठा लेते हैं कि दुल्हन का माला पहनाना असम्भव हो जाता है।

हल्दी रस्म, मेंहदी रस्म आदि कभी शालीनता के साथ हृदय से निभाई जाती थीं, किंतु वर्तमान परिप्रेक्ष्यों में सात जन्मों को जोड़ने वाली रस्मों को मानो होली पर्व में बदल दिया गया है। सारी खुशियों, आपसी समन्वय की भावना आत्मिक सुख-शांति को कैमरों और दिखावटीपन ने छीन लिया है।

इतना ही नहीं, कहीं-कहीं तो मंच पर ही वर-वधू दो चार हाँथ एक दूसरे पर आजमा लेते हैं, तो कहीं मंच पर दहेज की माँग ऐसे होती है, मानो पशु बाज़ार में खरीद-फरोख्त की बोली लगाई जा रही हो।

सर्वधर्म और सर्वसमाज को पुनः चिंतन- मनन करना चाहिए कि अपने समाज और आने वाली पीढ़ी को क्या दे रहे हैं।
धनाढ्य पूंजीवादी उपरगामी विचारधारा की संस्कृति आज मध्यम और निम्नवर्गीय चौखटों पर प्रवेश कर रही है। जो भारत में आने वाली पीढ़ियों के लिए कुंठा और असहजता के द्वार खोलेगी। इसलिए “जितनी चादर, उतने पैर पसारने” की कहावत चरितार्थ करते हुए दिखावेपन और पश्चिमी देशों की संस्कृति से चार हाँथ दूरी बनाकर चलने में भलाई है।

मांगलिक रस्मों और विवाह के दिन हर माता-पिता या अभिभावक सोंचता है कि भोजनालय प्रबंधन में कहीं कोई कमी न रह जाये। 30 से 35 प्रकार का नाश्ता, भोजन और मिष्ठान आदि सजाकर मेहमानों और मेजबानों की सेवा में रखा जाता है। बफर सिस्टम में कोई भी व्यक्ति नाना प्रकार के सभी व्यंजनों को ग्रहण नहीं करता होगा और सही मायने में शायद ही किसी का पेट भरता होगा। फिर भी समाज मे पद और प्रतिष्ठा की होड़ में अनावश्यक रूप से अधिकाधिक व्यय करके भी आत्म संतुष्टि नहीं मिलती है। अधिकांश भोजन नालियों, तालाबों में फेका जाता है।

अन्न का अनादर करने वाले किसी भी प्रकार से सभ्य समाज का निर्माण नहीं कर सकते। बफर सिस्टम में किसी के कपड़े लाल-पीले हो जाते हैं तो, कोई गुस्सा में लाल-पीला हो जाता है।

कन्या के घर में आई हुई सभी सखियाँ, सगे सम्बन्धी, शुभचिंतक स्त्रियाँ आदि दुल्हन को सिखाती थी कि –
                            सास ससुर गुर सेवा करेहू। पति रुख लखि आयसु अनुसनेहू।।
अति सनेह बस सखीं सयानी। नारि धरम सिखवहिं मृदु बानी।।
(बालकाण्ड, श्री रामचरित मानस)

किंतु आज आर्थिक और स्वालम्बी युग में वर वधू के नैतिक संस्कार सुरसा रूपी धारावाहिकों/फिल्मों ने निगल लिया है। इसलिए विवाह के चंद दिनों बाद ही विवाह-विच्छेदन की स्थिति उत्पन्न होने लगती है
बैसवारा की शान सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला ने भी सरोज स्मृति में पुत्री का विवाह का वर्णन करते हुए दहेजप्रथा और फिजूलखर्ची बंद करने के लिए प्रेरित किया है-

कर सकता हूँ यह पर नहीं चाह, मेरी ऐसी दहेज़ देकर,
मैं मूर्ख बनूँ, यह नहीं सुघर, बारात बुलाकर मित्थ्या व्यय,
मैं करूं, नहीं ऐसा सुसमय

अशोक कुमार गौतम
असिस्टेंट प्रोफेसर, साहित्यकार
वार्ड नं 10, शिवा जी नगर
नगर पालिका परिषद, रायबरेली, उ.प्र.
मो० 9415951459

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